एक आपराधिक मुकदमें में एक वकील के क्या कर्त्तव्य होते है?

 

एक आपराधिक मुकदमें में एक वकील के क्या कर्त्तव्य होते है? संक्षेप में बताइये

एक आपराधिक मुकदमें को मुख्य रूप से दो भागों में बॉटा जाता है

1. दीवानी का वाद

2. अपराध का मुकदमा।

अपराध का मुकदमा दीवानी वाद से भिन्न होता है फलस्वरूप अपराध के मुकदमें में वकील के कर्त्तव्य भी भिन्न हो जाते है। संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि प्रत्येक अभियुक्त व्यक्ति को कुछ मूल अधिकार दिये गये है।

एक वकील या अधिवक्ता के मुवक्किल के प्रति कर्तव्यों के मूल अधिकार निम्न होते है

1. किसी व्यक्ति को तभी बन्दी बनाया जायेगा, जब उसने विधि का उल्लघन किया हो। जब तक विधि का उल्लंघन नहीं होग, तब तक व्यक्ति को बन्दी नहीं बनाया जा सकता।

2. यदि किसी व्यक्ति को बन्दी बनाया गया है तो उस यथाशीघ्र बन्दी बनाये जाने के आधार बताये जायेंगे, जिनके आधार पर उसे बन्दी बनाया गया है।

3. बन्दी व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि उसे निकटतक मजिस्ट्रेट के सामने बन्दी बनाने के समय से 24 घण्टे के अन्दर पेश किया जाये।

4. किसी भी बन्दी व्यक्ति को 24 घण्टे के बाद तभी बन्दी के रूप में रखा जा सकता है, जबकि मजिस्ट्रेट का आदेश प्राप्त कर लिया जाये।

यदि किसी भी अभियुक्त के उपरोक्त मौलिक धिकार भंग होते है तो वकील का यह कर्त्तवय है कि वह तुरन्त उस आशय की कार्यवाही करे तथा बन्दी व्यक्ति को मुक्त कराये। इसी प्रकार अन्य मूल अधिकार भी उसे प्राप्त है।

परन्तु स्मरणीय है कि उपरोक्त प्रकार से मूल अधिकार एक बन्दी व्यक्ति को निम्न स्थिति में प्राप्त नहीं हो सकते-

1. यदि विदेशी शत्रु को बन्दी बनाया गया हैं

2. यदि किसी व्यक्ति की नजरबन्दी विधि के अन्तर्गत की गई है।

भारतीय संविधान द्वारा उपरोक्त मूल आधिकारो के अलावा निम्न प्रकार के अन्य मूल अधिकार भी प्रदान किये गये है-

1. किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार अभियोजन तथा दण्डित नहीं किया जायेगा।

2. किसी भी अभियुक्त पर उससे अधिक सजा नहीं थोपी जायेगी, जो उस अपराध के लिए उस समय थी, जिस समय उसने अपराध किया था।

3. किसी भी व्यक्ति को उसके विरूद्ध साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।

4. एक व्यक्ति को उसी कार्य से दण्डित किया जायेगा, जो उस समय अपराध था जिस समय वह कार्य किया गया था। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कार्य प्रारम्भ में निर्दोष स्वरूप का था तो बाद में उसे अपराध स्वरूप घेषित नहीं किया जा सकता हैं।

अपराध के मुकदमें अपने स्वभाव से ही भिन्न होते है, अतः उनसे सम्बन्धित स्थिति निम्न है-

1. वकील को अभियुक्त को पूरी तरह बचानाः- प्रत्येक वकील का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है कि अभियुक्त को पूरी तरह बचाने का प्रयास करे। यह उसका नैतिक और विधिक कर्त्तव्य भी है।

2. संस्वीकृतिः- यदि अभियुक्त ने अपराध को स्वीकार किया है तथा उसकी स्वीकारोक्ति उन परिस्थितियों के अन्तर्गत आती है जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार दूषित है तो वकील का कर्त्तव्य है वह उन संस्वीकृति की गयी है, तो अमान्य होगी, अतः इस प्रकार की संस्वीकृतियॉ अभियोजन में अभियुक्त के संरक्षण की माध्यम बन सकती है।

3. वकील को अभियुक्त को बरी कराने का पूर्ण प्रयासः- यदि एक अभियुकत अभियोजन के दौरान किसी अपराध को स्वीकार करता है, तो अभियुक्त चाहता है तो उसे उसका संरक्षण करना चाहिए। उस स्थिति में भी उसे अभियुक्त को बरी कराने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए।

4. वकील को अपराध की सूचनाः-यदि किसी वकील को अभियुक्त के अपराध का ज्ञान हो चुका है तो भी वह कर्त्तव्यबद्ध है कि वह अभियुक्त का वकील बने। यदि किसी अभियुक्त के द्वारा वकील को अपराध की सूचना दी गई है तो वकील का कर्त्तव्य है, कि वह उस सूचना को गुप्त रखे। यदि किसी अभियुक्त को किसी कारणवश सुरक्षा उपलबध नहीं हो रही है तो प्रत्येक वकील का कर्त्तव्य है कि उसे अपनी व्यक्तिगत धारणा के परे रहकर सहायता करे।

5. अभियुक्त के संरक्षणः- अमेरिका की विधि-व्यवस्था के अनुसार यह व्यवस्था है कि अभियुक्त के संरक्षण हेतु राज्य द्वारा वकील प्राप्त होगा यदि एक व्यक्ति स्वयं अपने को संरक्षित नहीं रख सकता है परन्तु यदि किसी अभियुक्त को संरक्षण प्राप्त है तो इस प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं होती।

6. वकील दुराचरण का दोषीः- हरेक वकील का यह कर्त्तव्य है, कि वह मुकदमेबाजी को बढने से रोके। यदि एक वकील अपने मुवक्किल को एक अपराध से बचाने के लिए दुसरे अपराध को करने की सलाह देता है तो ऐसा वकील दुराचरण का दोषी माना जायेगा।

7. अन्य व्यक्ति को विधिक क्षतिः-अपराध के मुकदमें में प्रत्येक वकील को अपने मुवक्किल को संरक्षित करने के लिए इस प्रकार की कहानी नहीं गढनी चाहिए जो किसी अन्य व्यक्ति को विधिक क्षति पहुॅचा रही हो।

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